उत्तराखंड, जिसे देवभूमि के नाम से भी जाना जाता है, अपने समृद्ध सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ के मेलों और त्योहारों में प्रकृति, आध्यात्मिकता और परंपराओं का अद्भुत समागम देखने को मिलता है। इन्हीं में से एक अनोखा मेला है “बग्वाल मेला”, जो उत्तराखंड के चंपावत जिले में स्थित देवीधुरा में मनाया जाता है। यह मेला अपनी अनूठी परंपरा और रोमांचक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के कारण विशेष महत्व रखता है।
बग्वाल मेले का ऐतिहासिक और पौराणिक महत्व
बग्वाल मेला मुख्य रूप से देवी मां बाराही को समर्पित होता है, जो देवीधुरा स्थित बाराही मंदिर की अधिष्ठात्री देवी हैं। इस मेले का उल्लेख स्कंद पुराण और कई स्थानीय लोककथाओं में भी मिलता है। कहा जाता है कि प्राचीन समय में इस क्षेत्र में चार प्रमुख खानदान—वल्लिग, चम्याल, गहरवाल और लमगड़िया—बसते थे।
मान्यता के अनुसार, हर साल बलि प्रथा के रूप में एक मानव बलि देने की परंपरा थी। बाद में, संतों और महात्माओं की प्रेरणा से यह प्रथा परिवर्तित होकर पत्थर युद्ध यानी “बग्वाल” में बदल गई, जहाँ चारों खाम (वंश) के लोग एक-दूसरे पर पत्थर बरसाकर युद्ध करते हैं, जिसे “पाषाण युद्ध” भी कहा जाता है।
बग्वाल मेले की परंपरा और आयोजन
बग्वाल मेला हर वर्ष रक्षाबंधन के अवसर पर आयोजित किया जाता है। इस दिन बड़ी संख्या में श्रद्धालु और पर्यटक देवीधुरा में एकत्र होते हैं। मेले की मुख्य विशेषता बग्वाल युद्ध होता है, जिसमें प्रतिभागी दो समूहों में बंटकर एक-दूसरे पर पत्थर बरसाते हैं। हालांकि, इस दौरान उनकी सुरक्षा के लिए बांस की ढाल और लकड़ी के सुरक्षा उपकरणों का उपयोग किया जाता है।
मेले की शुरुआत सुबह से ही देवी बाराही के दर्शन और पूजा-अर्चना से होती है। इसके बाद मंदिर परिसर में पारंपरिक अनुष्ठान किए जाते हैं। दोपहर के समय, चारों खामों के योद्धा विशेष पोशाक पहनकर युद्ध स्थल पर पहुँचते हैं। जैसे ही पुजारी देवी बाराही से युद्ध आरंभ करने की अनुमति लेते हैं, बग्वाल युद्ध शुरू हो जाता है।
बग्वाल मेले की अनूठी विशेषताएँ
- पाषाण युद्ध: यह मेला भारत का एकमात्र ऐसा आयोजन है जहाँ पत्थरों से युद्ध की परंपरा जीवित है।
- खून की पहली बूंद: युद्ध में जब तक किसी योद्धा के शरीर से पहली रक्त की बूंद नहीं गिरती, तब तक इसे जारी रखा जाता है। जैसे ही यह होता है, पुजारी इसे देवी को अर्पित करते हैं और युद्ध समाप्त घोषित कर दिया जाता है।
- लोकनृत्य और संगीत: मेले में पारंपरिक लोकनृत्य और लोकगीत प्रस्तुत किए जाते हैं, जो उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहर को प्रदर्शित करते हैं।
- सामाजिक समरसता: यह मेला चार प्रमुख खामों के मध्य एकता, सहयोग और भाईचारे का प्रतीक है।
आधुनिक परिप्रेक्ष्य और सुरक्षा व्यवस्था
समय के साथ, बग्वाल मेले में कई परिवर्तन किए गए हैं ताकि यह और अधिक सुरक्षित एवं सुव्यवस्थित बन सके। अब पत्थरों की जगह नरम फलों एवं अन्य सुरक्षित सामग्रियों का उपयोग किया जाने लगा है। इसके अलावा, प्रशासन द्वारा मेडिकल टीमें, पुलिस बल और सुरक्षा गार्ड तैनात किए जाते हैं ताकि किसी भी अप्रिय घटना से बचा जा सके।
पर्यटन और सांस्कृतिक महत्व
बग्वाल मेला न केवल स्थानीय निवासियों के लिए, बल्कि देश-विदेश के पर्यटकों के लिए भी आकर्षण का केंद्र है। हर साल हजारों पर्यटक इस अद्भुत परंपरा को देखने के लिए यहाँ आते हैं। उत्तराखंड सरकार और स्थानीय प्रशासन भी इस मेले को एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने के प्रयास कर रहे हैं।
निष्कर्ष
बग्वाल मेला उत्तराखंड की सांस्कृतिक समृद्धि और परंपराओं का प्रतीक है। यह एक अनूठी परंपरा है जो हमें हमारे ऐतिहासिक, धार्मिक और सामाजिक मूल्यों से जोड़ती है। आधुनिक समय में भी यह मेला अपनी महिमा और भव्यता के साथ जीवंत बना हुआ है, जो हमारी सांस्कृतिक धरोहर के संरक्षण का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।